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08/06/2025

नाकोड़ा जी का इतिहास

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विशाल जैन //  नाकोड़ा जी तीर्थ का इतिहास माना जाता है कि प्राचीन काल में इसे वीरमपुर कहा जाता था। वीरसेन और नकोरसेन नामक दो भाइयों ने 20 मील के अंतर पर दो नगर बसाए थे और उनके नाम क्रमशः वीरमपुर और नकोरनगर रखे थे। वीरसेन ने अपने नगरों में  चंद्रप्रभ भगवान का और नकोरसेन ने  सुपार्श्वनाथ भगवान का मंदिर स्थापित किया था। दोनों स्थानों पर मंदिरों की स्थापना (प्रतिष्ठा) आर्य  स्थूलिभद्र स्वामीजी ने की थी। राजा संप्रति के प्रतिबोधक आचार्य  सुहस्ति सूरीश्वरजी, राजा विक्रमादित्य के राज दरबार के रत्न आचार्य  सिद्धसेन दिवाकर, भक्तामर स्त्रोत के रचयिता आचार्य  मानतुंग सूरीश्वरजी,  कालकाचार्य, हरिभद्र सूरीजी,  देव सूरीजी तथा अन्य अनेक विद्वान आचार्यों ने अपने आध्यात्मिक प्रवचनों से तत्कालीन राजाओं को इन मंदिरों के जीर्णोद्धार हेतु प्रेरित किया था। नकोरनगर 13वीं शताब्दी तक अस्तित्व में था। बाद में आलम शाह के हमलों के समय लोग पास के अन्य स्थानों पर चले गए। विक्रम संवत (1224 ई.) के वर्ष 1280 में जब आलमशाह ने इस स्थान पर आक्रमण किया तो जैन संघ ने इस मूर्ति को सुरक्षा की दृष्टि से मंदिर से 4 मील की दूरी पर स्थित कालीद्रह गांव के तहखाने में छिपा कर रख दिया। 909 के दौरान 2700 जैन अनुयायी वीरमपुर नगर में बस गए। उनमें से एक  हरखचंदजी ने पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और  महावीर भगवान की मूर्ति को मूलनायक के रूप में स्थापित किया। 1223 में किए गए जीर्णोद्धार कार्य का विवरण भी मिलता है। 1280 में आलम शाह ने भी वीरमपुर पर आक्रमण कर मंदिर को भारी क्षति पहुंचाई। 15वीं शताब्दी के आरंभिक काल में क्षतिग्रस्त मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ हुआ। कालीद्रह गांव में रखी नाकोरनगर की मूर्तियों को यहां लाया गया और  पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति को 1429 में मूलनायक के रूप में चुना गया और मंदिर में स्थापित किया गया। चूंकि मूलनायक मूर्ति नाकोरनगर की थी, इसलिए इस तीर्थ को नाकोड़ा तीर्थ कहा जाता था। पंद्रहवीं शताब्दी में इस मंदिर का फिर से जीर्णोद्धार किया गया। कालीद्रह से 120 मूर्तियाँ यहाँ लाई गईं और इस सुंदर और चमत्कारी मूर्ति को विक्रम संवत (1373 ई.) के वर्ष 1429 में मूलनायक (मंदिर की मुख्य मूर्ति) के रूप में यहाँ स्थापित किया गया। जैन आचार्य कीर्तिरत्नसूरि ने यहाँ भैरव की मूर्ति स्थापित की। नाकोड़ा पार्श्वनाथ के अलावा यहाँ के अन्य जैन मंदिर ऋषभदेव और शांतिनाथ को समर्पित हैं। पार्श्वनाथ जैन मंदिर मूल रूप से महावीर का मंदिर था।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, नाकोरनगर के पास सिनादारी गांव के बगल में स्थित एक तालाब से मूलनायक मूर्ति प्राप्त हुई थी, जिसे बाद में भट्टारक आचार्य  उदय सूरीश्वरजी ने 1429 में इस मंदिर में मूलनायक मूर्ति के रूप में स्थापित किया। और इसी दिन से यह तीर्थ स्थान नाकोड़ा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इस स्थान के चमत्कारी देवता  भैरवजी महाराज को आचार्य कीर्तिरत्न सूरी ने संवत 1511 में यहां विधिपूर्वक स्थापित किया था। नाकोड़ा भैरव की स्थापना के बाद यह तीर्थ निरंतर समृद्ध होता गया। इस स्थान के चमत्कार लोगों के मन में घर कर गए। देश-विदेश के विभिन्न स्थानों से श्रद्धालु यहां आते रहे। समय-समय पर इस तीर्थ का जीर्णोद्धार और उद्धार भी हुआ। 
सत्रहवीं शताब्दी तक इस तीर्थ में जैन धर्म के लोग बहुसंख्यक थे, लेकिन बाद में इस स्थान के निवासी आसपास के अन्य गांवों और कस्बों में जाकर बस गए।


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